बिहार की राजनीति में जातियों का हमेशा एक खास रोल रहा है। आज भी, 77 साल बाद, सत्ता का खेल जातियों के चारों तरफ ही घूमता है। हर बार जब चुनाव आते हैं, जातिगत गठजोड़ और समीकरण सामने आते हैं। अगर हम बिहार में सत्ता की बुनियाद को देखें, तो इसे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा 44 साल का है, जहां कई जातियों को समान भागीदारी मिली। दूसरा हिस्सा 33 साल का है, जो मुख्य रूप से यादव और कुर्मी जातियों के प्रभुत्व का रहा है।

मंडल आंदोलन से पहले: 44 साल का जातिगत संतुलन

स्वतंत्रता के बाद से बिहार की सत्ता में अगड़ी जातियों का बोलबाला था। इस वक्त भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ जैसे जातियों ने सत्ता संभाली। इस समय कुछ नेता थे:
– श्रीकृष्ण सिंह (भूमिहार)
– दीप नारायण सिंह (राजपूत)
– विनोदानंद झा (मैथिल ब्राह्मण)
– कृष्ण वल्लभ सहाय (कायस्थ)
– महामाया प्रसाद सिंह (कायस्थ)
– दारोगा प्रसाद राय (यादव)
कर्पूरी ठाकुर (नाई)
– अब्दुल गफूर (मुस्लिम)
– राम सुंदर दास (चमार)
ये वो वक्त था जब कांग्रेस का प्रभाव बहुत था। इस दौरान जातिगत मतभेद ज्यादा नहीं दिखे। लेकिन आरक्षण को लेकर जो आंदोलन हुए, उन्होंने समाज और राजनीति में एक नई चेतना पैदा की।

मंडल आंदोलन के बाद: 33 साल का यादव और कुर्मी वर्चस्व

1970 के दशक के अंत में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया। इससे जातिगत राजनीति को एक नया मोड़ मिला। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद, पिछड़ी जातियों का राजनीतिक दखल बढ़ा। इसका सबसे बड़ा फायदा लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को मिला।

लालू प्रसाद यादव का दौर (1990-2005)

लालू प्रसाद यादव के राज में पिछड़ी जातियों और मुस्लिम वोटों का बहुत बड़ा समूह बना। इस वक्त यादवों का वर्चस्व रहा। अगड़ी जातियों की सत्ता में भागीदारी कम हो गई। लेकिन इस समय जातीय हिंसा और प्रशासन में अराजकता भी बढ़ी।

नीतीश कुमार का दौर (2005-वर्तमान)

2005 में नीतीश कुमार ने सत्ता संभाली। उन्होंने अति पिछड़ों और दलितों को एकजुट किया, और लालू के यादव-मुस्लिम गठजोड़ को चुनौती दी। उन्होंने महादलित आयोग बनाया और पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिया। उन्होंने कानून व्यवस्था पर भी ध्यान दिया।
हालांकि, इस संघर्ष में दूसरी पिछड़ी जातियों, जैसे कोईरी (कुशवाहा) और दूसरों ने भी भागीदारी की मांग की। 2014 के बाद में कोईरी समुदाय के नेता उपेंद्र कुशवाहा और दलित नेता जीतन राम मांझी अधिक हिस्सेदारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

बिहार की राजनीति में सामाजिक संगठनों की भूमिका

बिहार में कई सामाजिक और जातिगत संगठन राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं। ये संगठन अपने-अपने समुदाय के हकों की सुरक्षा के लिए सक्रिय हैं। कुछ प्रमुख संगठनों में शामिल हैं:
1. निषाद विकास संघ – मल्लाह समुदाय के अधिकारों के लिए।
2. कोईरी-कुशवाहा महासंघ – कोईरी समुदाय की राजनीतिक भागीदारी के लिए।
3. पासवान सेना – अनुसूचित जातियों के लिए।
4. भूमिहार ब्राह्मण एकता मंच – भूमिहार और ब्राह्मणों के हक के लिए।
5. अखिल भारतीय कायस्थ महासभा – कायस्थ समुदाय को मंच देने के लिए।
6. अति पिछड़ा वर्ग संघ – अति पिछड़ी जातियों के लिए।
7. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग मोर्चा – पिछड़ी जातियों की एकता के लिए।

जातिगत राजनीति का भविष्य

अब बिहार में सत्ता की लड़ाई पिछड़े बनाम अति पिछड़े हो रही है। यादव और कुर्मी का वर्चस्व तो है, लेकिन अब अन्य जातियां भी अपनी हिस्सेदारी की मांग कर रही हैं। रामविलास पासवान के बाद पासवान समुदाय की राजनीति भी बंटी हुई है। वहीं, निषाद समुदाय से मुकेश सहनी जैसे नेता भी सामने आ रहे हैं।
2025 के विधानसभा चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि कोईरी (कुशवाहा), मल्लाह, और अन्य अति पिछड़ी जातियां सत्ता के फार्मूले को कैसे प्रभावित करती हैं। क्या यादव-कुर्मी गठजोड़ अपनी पकड़ बनाए रखेगा? यह जातिगत समीकरणों की लड़ाई बिहार की राजनीति का अहम हिस्सा बनी रहेगी।
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