बगहा विधानसभा क्षेत्र की जनता आमतौर पर सत्तारूढ़ दलों के उम्मीदवारों को ही चुनती रही है।  1957 से 2020 तक की अवधि में, केवल दो अपवादों को छोड़कर, उन्होंने हर बार उस दल के प्रत्याशी को जिताया जो राज्य में सत्ता में रहा। यह दर्शाता है कि यहां के मतदाता स्थिरता, प्रभाव और संभवतः सरकारी योजनाओं के प्रभाव से प्रेरित होकर मतदान करते हैं।

दो ऐतिहासिक अपवाद – राजनीतिक चेतना का संकेत:

1977 का अपवाद:
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रभाव से देशभर में कांग्रेस विरोधी लहर चली थी। ऐसे माहौल में भी बगहा की जनता ने कांग्रेस के नरसिंह बैठा को जिताया, जो यह दर्शाता है कि यहां की जनता ने राष्ट्रीय लहर से अलग रुख अपनाया।
2015 का अपवाद:
जब जदयू और भाजपा का गठबंधन टूटा और नीतीश कुमार राजद के साथ गए, तो जनता ने भाजपा के उम्मीदवार राघव शरण पांडेय को जिताया। यह भी एक संकेत है कि जनता ने राज्य की सत्ता के निर्णय से असहमति जताई।

रोचक है इस सीट का इतिहास

बिहार का बगहा विधानसभा क्षेत्र राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत रोचक इतिहास वाला क्षेत्र रहा है। यह न केवल पार्टी सत्ता परिवर्तन का गवाह बना है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों में बदलाव का प्रतीक भी रहा है। बिहार के पश्चिम चंपारण जिले में स्थित यह क्षेत्र वाल्मीकिनगर लोकसभा के अंतर्गत आता है। आजादी के बाद से लेकर वर्तमान तक इस क्षेत्र की राजनीतिक यात्रा कई अहम पड़ावों से होकर गुज़री है, जिनमें सबसे प्रमुख बदलाव रहा है — कांग्रेस से इस सीट का छिन जाना और गैर-कांग्रेसी दलों का लगातार वर्चस्व।

कांग्रेस का शुरुआती प्रभुत्व

बगहा विधानसभा क्षेत्र पर कांग्रेस का दबदबा 1957 से 1985 तक रहा। इस दौरान कांग्रेस पार्टी ने इस सीट पर विभिन्न प्रत्याशियों को मौका दिया, लेकिन सबसे अधिक समय तक नरसिंह बैठा विधायक रहे। उन्होंने 1957, 1962, 1967, 1969, 1972 और 1977 में जीत हासिल की, जिससे कांग्रेस की जमीनी पकड़ और जनाधार का पता चलता है। इसके बाद 1980 और 1985 में त्रिलोकी हरिजन को टिकट दिया गया, जिन्होंने अविभाजित बिहार के इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। इन वर्षों में बगहा एक आरक्षित सीट रही, जहां अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों को ही अवसर मिलता था।

1990 के बाद सत्ता परिवर्तन

राजनीतिक समीकरणों में बड़ा बदलाव 1990 में आया, जब कांग्रेस की यह परंपरागत सीट जनता दल के कब्जे में चली गई। यह परिवर्तन राज्य की व्यापक राजनीतिक परिस्थितियों से जुड़ा था। लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल ने बिहार की राजनीति में जो सामाजिक न्याय और मंडल राजनीति की नई धारा प्रवाहित की, उसका प्रभाव बगहा पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई दिया।
1990 और 1995 में जनता दल के पूर्णमासी राम इस सीट से विधायक बने। वर्ष 2000 में वे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रत्याशी के रूप में जीते। दिलचस्प बात यह है कि पूर्णमासी राम ने बाद में पार्टी बदल ली और 2005 में जनता दल (यूनाइटेड) यानी जदयू की ओर से पुनः विधायक चुने गए। यह इस बात का उदाहरण है कि बगहा में व्यक्ति विशेष की पकड़ भी मजबूत रही है, जो पार्टियों के बीच स्थानांतरण के बावजूद अपना प्रभाव बनाए रखने में सक्षम रहे हैं।

भाजपा और जदयू का उभार

2005 से 2015 तक यह सीट जदयू के कोटे में रही। 2009 के उपचुनाव में जदयू के कैलाश बैठा ने जीत दर्ज की। इसके बाद 2010 में प्रभात रंजन सिंह को टिकट मिला और उन्होंने जीत हासिल की। 2015 में सीट का कोटा बदला और भाजपा को यह सीट दी गई। 2020 में भाजपा के राम सिंह ने जीत हासिल की और वर्तमान में वे विधायक हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बगहा विधानसभा क्षेत्र पर अब भारतीय जनता पार्टी की पकड़ मजबूत होती जा रही है।

जब पूर्व ऊर्जा सचिव बने विधायक

एक और दिलचस्प पहलू यह है कि इस सीट से 2025 (संभवत: 2015 का उल्लेख है) में भारत सरकार के पूर्व ऊर्जा सचिव राघव शरण पांडेय ने भी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और विजय प्राप्त की। इससे यह संकेत मिलता है कि बगहा जैसे अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्र में भी अब शहरी और प्रशासनिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को स्वीकार किया जा रहा है।

महिलाओं की अनुपस्थिति: एक चुप्पी जो बोलती है

आजादी के 75 साल बाद भी बगहा विधानसभा से कोई भी महिला न तो विधायक बनी और न ही उपविजेता। यह केवल एक सांख्यिकी तथ्य नहीं है — यह उस सामाजिक सोच का प्रतिबिंब है जो आज भी महिलाओं को नेतृत्व के योग्य नहीं समझती। यह सवाल केवल राजनीतिक दलों से नहीं, समाज से भी पूछा जाना चाहिए — क्यों आज तक कोई महिला यहां से आगे नहीं आ सकी? क्या यह केवल अवसर की कमी है या हमारी मानसिकता की सीमाएं? बिहार में जहां पंचायतों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी एक क्रांति बनी, वहीं बगहा जैसे क्षेत्रों में महिलाओं की चुप्पी एक सवाल बनकर उभरती है। यह क्षेत्र उस परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहा है, जहां किसी बेटी को मंच मिलेगा, जहां किसी मां को आवाज दी जाएगी, और जहां किसी बहन को नेतृत्त्व का अवसर मिलेगा।

अपराध-मुक्त राजनीति: उम्मीद की किरण

बिहार की राजनीति को लंबे समय तक ‘बाहुबलियों’ और ‘माफिया राज’ से जोड़ा गया। पर बगहा एक अपवाद रहा। यह वह क्षेत्र है जहां न तो किसी अपराधी ने अपनी पत्नी को चुनाव में उतारा, न ही कोई बाहुबली परिवारिक गठजोड़ से राजनीति में घुसा। यह इस समाज की चेतना को दर्शाता है — कि वे साख और सेवा को महत्व देते हैं, डर और दबाव को नहीं। यह इस बात की मिसाल है कि राजनीति अपराध के साये से भी मुक्त रह सकती है, यदि जनता सजग हो। उल्लेखनीय है कि बगहा जैसे कभी अपराध प्रभावित माने जाने वाले क्षेत्र में किसी भी माफिया या अपराधी ने अपनी पत्नी को राजनीति में उतारने की कोशिश नहीं की। यह बात इस क्षेत्र की राजनीति की एक अलग छवि पेश करती है — कि यहां पर पारिवारिक और आपराधिक गठजोड़ की राजनीति अभी तक प्रवेश नहीं कर सकी है, जैसा कि बिहार के कई अन्य क्षेत्रों में देखने को मिलता है।

सामाजिक समीकरण और आरक्षण का प्रभाव

बगहा विधानसभा क्षेत्र 2010 तक अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित रहा। इस आरक्षण नीति ने क्षेत्र के राजनीतिक स्वरूप को लंबे समय तक प्रभावित किया। आरक्षित होने के कारण यह सीट उन दलों की प्राथमिकता रही जो दलित राजनीति को केंद्र में रखते थे। लेकिन 2010 के बाद सामान्य श्रेणी में बदलने से यहां का सामाजिक संतुलन भी बदला है। अब यहां उच्च जातियों के साथ-साथ पिछड़ा वर्ग और दलितों की भी राजनीतिक उपस्थिति बनी हुई है। भाजपा और जदयू जैसे दलों ने इस समीकरण को समझते हुए अपने प्रत्याशियों का चयन किया है।

निष्कर्ष

बगहा विधानसभा क्षेत्र बिहार की बदलती राजनीतिक दिशा और सामाजिक सोच का सजीव उदाहरण है। 1990 से अब तक कांग्रेस का एक बार भी जीत हासिल न कर पाना इस बात का प्रमाण है कि क्षेत्रीय दलों ने कैसे कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक को छीन लिया। जदयू और भाजपा की बढ़ती ताकत ने इसे और भी जटिल बना दिया है। साथ ही, यह क्षेत्र महिला प्रतिनिधित्व की कमी और अपराध-मुक्त राजनीति की मिसाल भी पेश करता है।
भविष्य में बगहा की राजनीति में यदि कोई बड़ा परिवर्तन होता है, तो वह महिलाओं की भागीदारी बढ़ाकर, और सामाजिक समरसता को प्राथमिकता देकर ही संभव हो सकेगा। तब तक यह सीट बिहार की राजनीति में अपने विशिष्ट, किंतु चुनौतीपूर्ण स्वरूप के साथ बनी रहेगी।
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